सोमवार, 21 जनवरी 2019

अपना भी कोई घर होता (कविता)

सुदुर अंतरिक्ष में अपना भी कोई घर होता,
जब मन व्याकुल हो जाता इस हिंसक वातावरण स ,वही जाकर कुछ छन बिताता।
वहां ये सब तो ना देखन सुननेे को मिलता जैसे,
सरहद पर गोलियों की तड़तड़ाहट ,
कचरे की पेटी में कोई मासूम की सुगबुगाहट।
बीच चौराह पर तड़पता इंसान,
मोत बाटने वाला खुला घूमता शैतान।
इज्जत लूटा चुकी अबलाओं का ,
सुबक-सुबक कर रोना ।
लाखो मासूमो को खली पेट फुटपात पर सो जाना।
कम से कम ये तो न होता वँहा।
निश्छल , अहिंसक, प्रेममय शीतल बयार बहता हो जँहा।
डर, भूख और अपनो से बिछडने का गम ना होता हो जँहा ।
चाँद, शुक्र या हो मंगल इससे कुछ फर्क ना पड़ता ।
ऎसे ही शांत ,मंगलमय वातावरण में ,
काश अपना भी कोई घर होता, अपना भी कोई घर होता।

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